नान्हे कहिनी : सिरिफ एक पेड़

बड़ उदास राहय सुकालू अउ दुकालू। घर- कुरिया, खेत-खार भांय-भांय लगय। कतको खातिन, कमातिन, पातिन, फेर मनछोट, अधूरा-अधूरा। आंधी म टूटे गिरे लिपटिस कस बगीचा लगय परिवार।
ददा तो राहय फेर, दाई तो होथे दाई, कोनो नई पा सकंय ओखर गहराई। दाई तो छाता होथे, अउ ददा पितर पाख के महीना चलत राहय। नवमीं के पितर अवइया राहय ऊंखर दाई-ददा ल जीयत राखेबर, ओखर खुशी शांति बर, भागवत कहवाये राहंय। मंदिर बनवाए राहय। फेर दूनो भाई के मन ल शांति नई मिलिस। ऊंखर मन म घेरी-बेरी खटकय के दाई बर कुछू नई कर पायेन।
सोंचते-सोंचत दूनो भाई सोचिन पेड़ लगातेन, दुकालू कहिस ‘हव भइया! एक पेड़ म हजारों पुन छिपे होथे, कहिथें सब।’
‘हव भाई ये सहि बताये।’ सुकालू समझाईस- एक मनखे के झन बर बना सकत हे घर, के झन ल दे सकत हे छांव, के झन बर कर सकथे भोजन बेवस्था अउ के झन ल सुध्द आक्सीजन जीवन दे सकथे। कतका परदूसन ल रोक सकथे? सहि कहिबे त एक झन ल घलो नहि। फेर ये सब काम ल एके पेड़ खड़े-खड़े कर देथे। कतनो जीव-जंतु ल घर, छांव, ऑक्सीजन अउ भोजन दे देथे। सिरिफ एके पेड़ ह। येखरे सेति एक पेड़ लगाना, हजारों, लाखों जीव बर घर छांव जीनगी देय के बराबर आय। दूसर भाखा म पेड़ लगाना सबले बड़े पुन, सेवा तीरथ आय।
‘त भइया एक नहिं, रद्दा के दूनो बाजू म पेड़ें-पेड़ लगाना हे।’
‘वह भाई, सिरजाना घलो हे।’ सोंचके दूनो झन ल बड़ शांति के अनुभव होइस अउ अपन दाई के नाम से कुछ करे के खुशी घलो। पेड़ लगई, अउ सिरजई, ओमन ल अपन दाई के सेवा करई लगे लगिस। पेड़, ऊंखर जीयत अउ अमर दाई बनगे।
तेजनाथ
बरदुली पिपरिया कबीरधाम

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